ओल (जिमीकंद) की वैज्ञानिक खेती :-

ओल यानि जिमीकंद ‘एरेसी’ कुल का एक सर्वपरिचित पौधा है जिसे भारतवर्ष में सूरन, बालुकन्द, अरसधाना, कंद तथा चीनी आदि अनेक नामों से जाना जाता है। इसकी खेती भारत में प्राचीन काल से होती आ रही है तथा अपने गुणों के कारण यह सब्जियों में एक अलग स्थान रखता है। ओल में पोषक तत्वों के साथ ही अनेक औषधीय गुण पाये जाते हैं जिनके कारण इसे आयुर्वेदिक औषधियों में उपयोग किया जाता है। इसे बवासीर, खुनी बवासीर, पेचिश, ट्यूमर, दमा, फेफड़े की सूजन, उदर पीड़ा, रक्त विकार में उपयोगी बताया गया है। इसकी खेती हल्के छायादार स्थानों में भी भली-भांति की जा सकती है जो किसानों के लिए काफी लाभप्रद सिद्ध हुआ है।

किसान भाई जिमीकंद या सूरन की खेती एक औषधीय फसल के रूप में करते है. हमारे घरों में सब्जी के रूप में इसका इस्तेमाल किया जाता है।  देशभर में व्यावसायिक उत्पादन के लिए इसको अपनाया जा रहा है।इसमें कार्बोहाइड्रेट, खनिज, कैल्शियम, फॉस्फोरस समेत कई तत्व पाए जाते है. इसका उपयोग  बवासीर, पेचिश, दमा, फेफड़ों की सूजन, उबकाई और पेट दर्द जैसी बीमारियों में भी किया जाता है. साथ ही आयुर्वेदिक दवाओं में उपयोग किया जाता हैं।  इसके पौधों पर लगने वाले फल जमीन के अंदर ही कंद के रूप में विकास करते हैं।  बता दें कि इसको खाने से गले में खुजली हो सकती है, लेकिन आज के दौर में इसकी प्रतिरोधी कई नई किस्मों का निर्माण किया गया है. जिसको खाने से खुजली नहीं होती है। 

‘गजेंद्र’ किस्म के जिमी कंद की उपज दूसरी फसल की तुलना में लाभकारी है। इसकी प्रक्रिया सरल है। यह वैसे तो सभी किस्म की भूमि में होता है। पर बलुई, दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिए अच्छी होती है। गर्म, शुष्क मौसम में पौधों व कंद का अच्छा विकास होता है। इसे नुकसान की संभावना कम रहती है क्योंकि जानवर इसे नहीं खाते। यह फसल कीटनाशक के प्रभाव से प्रायः मुक्त है। इसके लिए पानी की बहुत ज्यादा अावश्यकता नहीं होती। मानसून आधारित पानी इसके लिए पर्याप्त है। इसकी खेती पर खरपतवार का प्रभाव भी कम पड़ता है।

एक नजर मे
कुल बीजपौधे की संख्याउपजखर्चबिक्री दर/प्रति कुन्टलआयशुद्ध लाभ
25 क्विंटल x160 क्विंटल /16 टन₹ 70,000/-₹ 2000/-  से  ₹ 4000/-₹ 3,200, 00₹ 2,50,000

उपयुक्त मिट्टी

इसकी खेती के लिए रेतीली दोमट मिट्टी अच्छी मानी जाती है, क्योंकि इस में कंदों की बढ़ोतरी तेजी से हो जाती है. तो वहीं खेत में जलनिकास का प्रबंधन अच्छा होना चाहिए. ध्यान रहे कि इसकी फसल चिकनी और रेतीली जमीन में न करें. इससे कंदों का विकास रुक जाता है.

उपयुक्त जलवायु

इसकी खेती करने के लिए नमगरम और ठंडे सूखे दोनों मौसमों की आवश्यकता होती है. ऐसे में इसके पौधों व कंदों का विकास अच्छी तरह होता है. तो वहीं बुवाई के वक्त बीजों को अंकुरण के लिए ऊंचे तापमान की जरूरत पड़ती है. पौधों की बढ़वार के वक्त अच्छी बारिश होना जरूरी है.

उन्नत किस्में

गजेंद्रा, संतरागाची, श्रीपद्मा, आजाद, श्री आतिरा, एनडीए-9 आदि प्रमुख प्रजातियां हैं। इनकी उत्पादन क्षमता 17 से 40 टन प्रति एकड़ है।

जिमीकंद, सूरन या ओल की कई उन्नत किस्में होती हैं. जिनको गुणवत्ता, पैदावार और मौसम के आधार पर तैयार किया जाता है. आपको कौन-सी किस्म का चयन करना है. ये अपने क्षेत्र और जलवायु के आधार पर तय कर लें.

‘गजेंद्र’ किस्म के जिमी कंद की उपज दूसरी फसल की तुलना में लाभकारी है। इसकी प्रक्रिया सरल है। यह वैसे तो सभी किस्म की भूमि में होता है। पर बलुई, दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिए अच्छी होती है। गर्म, शुष्क मौसम में पौधों व कंद का अच्छा विकास होता है। इसे नुकसान की संभावना कम रहती है क्योंकि जानवर इसे नहीं खाते। यह फसल कीटनाशक के प्रभाव से प्रायः मुक्त है। इसके लिए पानी की बहुत ज्यादा अावश्यकता नहीं होती। मानसून आधारित पानी इसके लिए पर्याप्त है। इसकी खेती पर खरपतवार का प्रभाव भी कम पड़ता है।

ओल-गेहूँ, ओल-मटर, ओल-अदरक, ओल-प्याज।

चूँकि इस फसल का अंकुरण देर से होता है। इसलिए पौधों के प्रारम्भिक विकास की अवधि में अन्तर्वर्ती फसलें जैसे भिण्डी, बोड़ा, मूंग, कलाई, मक्का, खीरा, कद्दू आदि फसलें सफलतापूर्वक ली जा सकती है। अनुसंधान द्वारा यह पाया गया है कि इसकी खेती लीची एवं अन्य फलों के बागों में अन्तर्वर्ती फसल के रूप में सफलतापूर्वक किया जा सकता है।

बुआई का समय: अप्रैल-जून

सिंचाई की सुविधा होने पर इसे मार्च के दूसरे पखवाड़े में लगाना चाहिए। पानी की सुविधा न होने पर इसे जून के अंतिम सप्ताह में मानसून आने पर लगाते हैं। 

खेत की तैयारी

इसकी खेती करते वक्त मिट्टी का भुरभुरा और नर्म होनी चाहिए. जिससे फल का विकास अच्छी तरह हो सके. सबसे पहले खेत की गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हलों से करनी चाहिए. इसके बाद कुछ दिनों तक खेत को खुला छोड़ दें, ताकि खेत को अच्छे से तेज़ मिल सके. अब पुरानी गोबर की खाद को मिट्टी में मिला दें. इसके बाद खेत की दो से तीन तिरछी जुताई करें. अब खेत में पानी चलाकर उसका पलेव कर दें. जब खेत की मिट्टी ऊपर से हल्की सूख जाए, तो फिर से कल्टीवेटर के माध्यम से एक बार जुताई कर देनी चाहिए. साथ ही रासायनिक खाद को उचित मात्रा में छिड़क दें और रोटावेटर चलाये, ताकि वह मिट्टी में आसानी से मिल जाए. इसके बाद खेत में नाली बनाकर रोपाई के लिए खेत को तैयार कर लें.

पौधों की सिंचाई

इसके खेत में सिंचाई ज्यादा करनी पड़ती है, क्योंकि पौधों को पानी की ज्यादा जरुरत होती है, ताकि इसके कंदों का विकास अच्छे से हो जाए. इसके बीज को खेत में लगाने के बाद अंकुरित होने तक खेत में नमी बनाए रखे. तो वहीं खेत में सप्ताह में दो से तीन बार सिंचाई कर दें. बता दें कि गर्मियों के मौसम में पौधों को चार से पांच दिन के अंतराल में पानी दें. अगर बारिश का मौसम है, तो खेत में पानी जरूरत नहीं पड़ती है. सर्दियों का मौसम है, पौधों को करीब 15 से 20 दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए.

बुआई के बाद पुआल अथवा शीशम की पत्तियों से ढक देना चाहिए जिससे ओल का अंकुरण जल्दी होता है, खेत में नमी बनी रहती है तथा खरपतवार कम होने के साथ ही अच्छी उपज प्राप्त होती है।

250 से 500 ग्राम के कंदों के टुकड़ों का उपयोग करने से अच्छी फसल होती है। दो पौधों के बीच की दूरी 90×90 सेमी होती है। प्रति एकड़ 25 क्विंटल बीज लगता है। बुआई के पंद्रह से बीस दिन बाद इसके पौधे अंकुरित होते हैं।

सुरन के बीज उसके फलों से ही बनते हैं. इसके बीजों के लिए पूर्ण तरीके से पक चुके फल को कई भागों में काटकर खेत में लगाया जाता है. इसके अलावा कुछ किस्मों में कन्या घनकन्द पाए जाते हैं. जिन्हें बीज के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं. इसके बीजों को खेत में लगाने से पहले उन्हें उपचारित के लेना चाहिए. इसके लिए बीजों को स्ट्रेप्टोसाइक्लीन या इमीसान की उचित मात्रा के घोल में आधा घंटे तक डुबोकर रखना चाहिए। 

बीजों की रोपाई

आपको बता दें कि जिमीकंद के बीज उसके फलों से ही बनते हैं. इसलिए खेत में पके हुए फल को कई भागों में काटकर लगाया जाता है. इससे पहले बीजों को स्ट्रेप्टोसाइक्लीन या इमीसान की उचित मात्रा के घोल में आधा घंटे तक डुबोकर रख दें. ध्यान रहे कि फल से बीजों को तैयार करते समय बीजों का वजन करीब 250 से 500 ग्राम हो. हर कटे हुए बीज में कम से कम दो आंखे होनी चाहिए. जिससे पौधे का अंकुरण ठीक हो सके. बीज रोपाई के लिए नालियों या गड्डों को तैयार कर लेना चाहिए. इन नालियों के बीच करीब दो से ढाई फिट की दूरी हो. बीज को आपस में दो फिट की दूरी पर ही उगाना चाहिए. इसके बाद मिट्टी से ढक दें.

लगाने की विधि: दो विधियों द्वारा ओल की बुआई की जाती है: 1. चौरस खेत में, 2. गड्ढों में ।

  1. चौरस खेत में: ओल की बुआई करने के लिए अंतिम जुताई के समय गोबर की सड़ी खाद एवं रासायनिक उर्वरक में नेत्रजन एवं पोटाश की 1/3 मात्रा एवं फास्फोरस की पूर्ण मात्रा को खेत में मिलाकर जुताई कर देते हैं। उसके बाद कंदों के आकार के अनुसार 75 से 90 सें.मी. की दूरी पर कुदाल द्वारा 20 से 30 सें.मी. गहरी नाली बनाकर कंदों की बुआई कर दी जाती है तथा नाली को मिट्टी से ढक दिया जाता है।
  2.  
  3. गड्ढों में: इस विधि से अधिकांशत: ओल की बुआई की जाती है। इस विधि में 75 x 75 x 30 सें.मी. या 1.0 x 1.0 मी. x 30 सें.मी. चौड़ा एवं गहरा गड्ढा खोद कर कंदों की रोपाई की जाती है। रोपाई के पूर्व निर्धारित मात्रा में खाद एवं उर्वरक मिलाकर गड्ढा में डाल दें। कंदों को बुआई के बाद मिट्टी से पिरामिड के आकार में 15 सें.मी. उंचा कर दें। कंद की बुआई इस प्रकार करते हैं कि कंद का कलिका युक्त भाग ऊपर की तरु सीधा रहे।

खाद एवं उर्वरक

ओल की अच्छी उपज हेतु खाद एवं उर्वरक का इस्तेमाल करना बहुत ही आवश्यक है। इसके लिए 10-15 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद, नेत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश 80:60:80 किग्रा./हे. के अनुपात में प्रयोग करें। बुआई के पूर्व गोबर की सड़ी खाद को अंतिम जुताई के समय खेत में मिला दें। फास्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा, नेत्रजन एवं पोटाश की 1/3 मात्रा बेसल ड्रेसिंग के रूप में तथा शेष बची नेत्रजन एवं पोटाश को दो बराबर भागों में बाँट कर कंदों के रोपाई के 50-60 तथा 80-90 दिनों बाद गुड़ाई एवं मिट्टी चढ़ाते समय प्रयोग करें। उर्वरकों का व्यवहार तालिका  के अनुसार करें।

उर्वरक

उर्वरक की मात्रा

किग्रा./हें.

बुआई के समय

(किग्रा./हें.)

बुआई के बाद

(किग्रा./हें.)

50-60 दिन

80-90 दिन

यूरिया

180.0

60.00

60.00

60.00

सिंगल सुपर फास्फेट

375.00

375.00

म्यूरेट ऑफ़ पोटाश

160.00

53.30

53.30

53.30

गड्ढों में ओल लगाते समय प्रति गड्ढा 2 से 3 किग्रा. गोबर की सड़ी खाद 18 ग्राम यूरिया, 38 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 15 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश एवं 5 ग्राम ब्लीचिंग पाउडर का प्रयोग करें। यूरिया की आधी मात्रा 9 ग्राम एवं अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा को मिट्टी में मिलाकर गड्ढों में भर दें। शेष आधी बची यूरिया को प्ररोह निकलने के 80-90 दिन बाद प्रति गड्ढा की दर से व्यवहार करें।

बुआई के 25-30 दिनों के अंदर पौधे उग जाते हैं। 50-60 दिनों बाद पहली तथा 80-90 दिनों बाद दूसरी निकाई करें। निकाई के समय पौधों पर मिट्टी भी चढ़ाते जायें।

झुलसा रोग: यह ओल का बैक्टीरिया जनित रोग है जिसका आक्रमण पौधों की पत्तियों पर सितम्बर-अक्टूबर माह में अधिक होता है। पत्तियों पर छोटे-छोटे वृताकार हल्के-भूरे रंग के धब्बे बनते हैं जो बाद में सुखकर काले पड़ जाते हैं एवं पत्तियाँ सुख कर झलस जाती है। कंदों की वृद्धि नहीं हो पाती है।

रोग का लक्षण आते ही बैभीस्टीन अथवा इंडोफिल एम 45 का 2.5 मिली. प्रति ली. की दर से 2-3 छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करें।

तना गलन: इस रोग का आक्रमण उन क्षेत्रों में अत्यधिक होता है जहां पानी का जमाव ज्यादा होता है तथा लगातार एक ही खेत में ओल की खेती की जा रही हो। एस रोग का प्रकोप अगस्त-सितम्बर माह में अधिक होता है। यह मृदा जनित रोग है। इस रोग का लक्षण कालर भाग पर दिखाई पड़ता है तथा पौधा पीला पड़कर जमीन पर गिर जाता है।

इसके रोकथाम हेतु उचित फसल चक्र अपनाएँ। जल निकास की उचित व्यवस्था रखें। कंद लगाने से पूर्व उसे बताई गयी विधि द्वारा उपचारित कर लें। कैप्टान दवा के 2% के घोल से 15 दिनों के अंतराल पर दो-तीन बार पौधे के आस-पास भूमि को भींगा दें।

कंदों की खुदाई

इसके पौधों बीज रोपाई के करीब 6 से 8 महीने बाद पक जाते हैं. जिसके बाद पौधों के नीचे की पत्तियां सूखकर गिरने लगती हैं. ऐसे में फलों की खुदाई कर देनी चाहिए. इसके बाद उन्हें साफ़ पानी से धो लें और छायादार स्थान पर सूखाकर रख दें. अब किसी हवादार बोरो में उन्हें भरकर बाज़ार में भेज देना चाहिए.

खुदाई एवं भंडारण

बुआई के सात से आठ माह के बाद जब पत्तियाँ पीली पड़ कर सूखने लगती है तब फसल खुदाई हेतु तैयार हो जाती है। खुदाई के पश्चात कंदों की अच्छी तरह मिट्टी साफ़ कर दो-तीन दिन धूप में रखकर सुखा लें। कटे या चोट ग्रस्त कंद को स्वस्थ कंदों से अलग कर लें। इसके बाद कंद को किसी हवादार भण्डार गृह में लकड़ी के मचान पर रखकर भण्डारित करें। इस प्रकार ओल को पांच से छ: माह तक आसानी से भण्डारित किया जा सकता है।

पैदावार

फसल की अच्छी पैदावार उसकी देखरेख और किस्मों पर  निर्भर करती है. अगर बीजों की बोआई करीब 500 ग्राम की गई है, तो इससे प्रति एकड़ करीब 160 क्विंटल /16 टन की पैदावार हो सकती है. जिसको करीब 20 से 40 रुपए प्रति किलोग्राम में आसानी से बेचा जा सकती है। 

लाभ

कुल बीजपौधे की संख्याउपजखर्चबिक्री दर/प्रति कुन्टलआयशुद्ध लाभ
25 क्विंटल x160 क्विंटल /16 टन₹ 70,000/-₹ 2000/-  से  ₹ 4000/-₹ 3,200, 00₹ 2,50,000

यदि उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर ओल की खेती किया जाये तो इससे रु. 1,25,000/- से 1,50,000/- तक शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है तथा किसान अपनी आर्थिक स्थिति को सुधार सकते हैं।

बाजार हर जगह उपलबद्ध है।

स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: कृषि विभाग, बिहार सरकार

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