काबुली चना की खेती देशी चने की तरह ही की जाती है. काबुली चने को डॉलर और छोला चना भी कहा जाता है. काबुली चने का पौधा सामान्य (देशी) चने से बड़ा होता है. इसके पौधे पर फलियों (टाट) देरी से बनती है. इसके पौधे देशी चने से ज्यादा वक्त बाद पकते हैं. काबुली चनो का रंग हल्का सफ़ेद या हल्का गुलाबी पाया जाता है. जिनका आकार सामान्य चने से काफी बड़ा पाया जाता हैं. काबुली चने का इस्तेमाल सब्जी के साथ साथ छोले और भूनकर खाने में ज्यादा किया जाता है. इसको खाने से कई तरह के रोगों में फायदा मिलता है. जिनमें पथरी, मोटापा और पेट संबंधित बिमारियों में यह लाभदायक होता है.

काबुली चना की खेती देशी चने की तरह ही की जाती है. काबुली चने को डॉलर और छोला चना भी कहा जाता है। काबुली चने का पौधा सामान्य (देशी) चने से बड़ा होता है। इसके पौधे पर फलियों (टाट) देरी से बनती है. इसके पौधे देशी चने से ज्यादा वक्त बाद पकते हैं। काबुली चनो का रंग हल्का सफ़ेद या हल्का गुलाबी पाया जाता है।  जिनका आकार सामान्य चने से काफी बड़ा पाया जाता हैं. काबुली चने का इस्तेमाल सब्जी के साथ साथ छोले और भूनकर खाने में ज्यादा किया जाता है. इसको खाने से कई तरह के रोगों में फायदा मिलता है. जिनमें पथरी, मोटापा और पेट संबंधित बिमारियों में यह लाभदायक होता है। 

भारत में देसी चना (कत्त्थई से हल्का काला) की खेती बहुत समय से की जा रही है वही आजकल बाजार में मांग बढ़ने के साथ काबुली चने की खेती की तरफ भी किसानों का रुझान काफी बढ़ा है | काबुली चने का दाना सफ़ेद (हल्के बादामी रंग) एवं साइज़ में देसी चने से अपेक्षाकृत बड़ा होता हैं | देश में कई राज्यों के किसान चने की खेती कर रहे हैं, काबुली चना का किसानों दाम भी बाजार में अच्छा मिल जाता है | किसानों को काबुली चना की अधिक पैदावार प्राप्त करने हेतु निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है |

काबुली चने की खेती के लिए शरद जलवायु की जरूरत होती है. इसके पौधे अधिक तेज़ गर्मी के मौसम में अच्छे से विकास नही कर पाते. इसके पौधों को बारिश की सामान्य जरूरत होती है. काबुली चने की खेती के लिए सिंचाई की जरूरत होती है. इसकी खेती के लिए भूमि का पी. एच. मान सामान्य के आसपास होना चाहिए. काबुली चने का वर्तमान में उपयोग काफी बढ़ चुका है. काबुली चना किसानों के लिए काफी लाभ देने वाली खेती है. जिसको देखते हुए अब इसकी खेती बड़े पैमाने पर की जाने लगी है.

अगर आप भी काबुली चने के माध्यम से अच्छी कमाई करना चाहते हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं। 

एक नजर मे
कुल बीजपौधे की संख्याउपजखर्चबिक्री दर/प्रति कुन्टलआयशुद्ध लाभ
35 से 40 किलो बीज 22 से 24  कुंतल₹ 25 ,000/-₹ 6000/- ₹ 125,000₹ 1 लाख 

भूमि का चयन

काबुली चने की खेती सभी तरह की भूमि में की जा सकती है. लेकिन उन्नत पैदावार लेने के लिए इसे हल्की दोमट मिट्टी में उगाना चाहिए. इसकी खेती के लिए भूमि में जल भराव नही होना चाहिए. जलभराव होने से इसकी खेती में कई तरह के रोग लग जाते हैं. इसकी खेती के लिए भूमि का पी. एच. मान 7 के आसपास होना चाहिए । 

काबुली चने की खेती के लिए शीतोष्ण जलवायु उपयुक्त होती है. इसके पौधे को विकास करने के लिए सर्दी के मौसम की जरूरत होती है. लेकिन सर्दियों में अधिक समय तक पड़ने वाला पाला इसकी फसल के लिए नुकसानदायक होता है. गर्मी का मौसम इसकी खेती के लिए उपयुक्त नही होता. गर्मी के मौसम में इसके पौधे विकास नही कर पाते हैं. और उन पर कई तरह के रोग लग जाते हैं. जिसका असर इसकी पैदावार पर देखने को मिलता है. इसकी खेती के लिए सामान्य बारिश की जरूरत होती है.

चने की खेती के लिए सामान्य तापमान की आवश्यकता होती है. शुरुआत में इसके पौधों को अंकुरित होने के लिए 20 डिग्री के आसपास तापमान की आवश्यकता होती है. उसके बाद इसके पौधे सर्दियों के मौसम में 10 डिग्री के आसपास तापमान पर भी आसानी से विकास कर लेते हैं. जबकि दानो के पकने के दौरान इसके पौधे को 25 से 30 डिग्री के बीच तापमान की जरूरत होती है.

काबुली चने की काफी उन्नत किस्में बाजार में उपलब्ध हैं. जिन्हें अलग अलग जगहों पर अधिक पैदावार लेने के लिए तैयार किया गया है.

श्वेता

काबुली चने की इस किस्म को जल्द पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है. जिसे आई सी सी व्ही 2 के नाम से भी जानते हैं. इसके दाने मध्य मोटाई वाले आकर्षक दिखाई देते हैं. जो बीज रोपाई के लगभग 85 से 90 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 15 से 20 क्विंटल के बीच पाया जाता है. काबुली चने की इस किस्म को सिंचित और असिंचित दोनों जगहों पर आसानी से उगाया जा सकता है. इसके दाने छोले के रूप में अधिक स्वादिष्ट होते हैं.

मेक्सीकन बोल्ड

चने की ये एक विदेशी किस्म है, जिसके पौधे सामान्य ऊंचाई के पाए जाते हैं. इस किस्म के पौधों को असिंचित भूमि में अधिक पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है. इसके पौधे रोपाई के लगभग 90 से 100 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इसके दाने आकार में मोटे दिखाई देते हैं. जिनका रंग बोल्ड सफेद और चमकदार पाया जाता है. जो काफी आकर्षक दिखाई देते हैं. इसके दानो का बाजार भाव काफी अच्छा मिलता है. इसके पौधों का प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 25 से 35 क्विंटल के बीच पाया जाता है. लेकिन फसल की देखभाल अच्छे से की जाए तो पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़ाया जा सकता है. इसके पौधों पर कीट रोग का प्रभाव काफी कम देखने को मिलता है.

हरियाणा काबुली न. 1

चने की इस किस्म को मध्यम समय में अधिक पैदावार देने के लिए चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार द्वारा तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 110 से 130 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 25 से 30 क्विंटल के बीच पाया जाता है. काबुली चने की इस किस्म को बारानी भूमि को छोड़कर लगभग सभी तरह की भूमि में उगा सकते हैं. इसके पौधे अधिक शखाओं युक्त फैले हुए होते हैं. इसके दानो का आकार सामान्य और रंग गुलाबी सफ़ेद होता है. इसके पौधों में उकठा रोग काफी कम देखने को मिलता है.

चमत्कार

काबुली चने की इस किस्म के पौधे सामान्य ऊंचाई और कम फैलने वाले होते हैं. इसके पौधों पर पत्तियां बड़े आकार वाली पाई जाती हैं. इसके पौधे रोपाई के लगभग 130 से 140 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इसके पौधों का प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 15 से 18 क्विंटल के बीच पाया जाता है. जिसके दानो का आकार बड़ा दिखाई देता है. इसके पौधों पर उकठा रोग देखने को नही मिलता.

काक 2

चना की ये एक मध्यम समय में पककर तैयार होने वाली किस्म हैं. इसके पौधे सामान्य ऊंचाई के पाए जाते हैं. जिन पर उकठा रोग देखने को नही मिलता. इसके पौधे रोपाई के लगभग 110 से 120 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 15 से 20 क्विंटल के बीच पाया जाता है. इसके दाने सामान्य मोटाई और हल्के गुलाबी रंग के पाए जाते हैं.

एच. के. न. 2

काबुली चने की इस किस्म को चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार द्वारा तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 120 दिन के आसपास पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 20 से 25 क्विंटल के बीच पाया जाता है. जिसे हरियाणा के आसपास के राज्यों में उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे कम ऊंचाई और सीधे बढ़ने वाले होते हैं. जिसकी पत्तियों का रंग हल्का हरा दिखाई देता है.

जे.जी.के 1

काबुली चने की की इस किस्म को मध्य प्रदेश में अधिक उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 110 से 120 दिन के बीच पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 15 से 18 क्विंटल के बीच पाया जाता है. इसके दानो का रंग हल्का सफ़ेद या क्रमी सफेद पाया जाता है. इस किस्म के पौधे सामान्य लम्बाई के और कम फैलने वाले होते हैं. इसके पौधों पर पत्तियां बड़े आकार वाली और फूल सफ़ेद रंग के पाए जाते हैं.

जे.जी.के 2

काबुली चने की इस किस्म के पौधे कम समय में अधिक पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 100 से 110 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इसका इस्तेमाल छोले के रूप में भी किया जाता है. इस किस्म के पौधे कम फैलाव वाले पाए जाते हैं. जिसकी पतियों का आकार बड़ा और फूलों का रंग सफेद होता है. इसके दाने सामान्य आकार और हल्के सफेद रंग के पाए जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 20 क्विंटल तक पाया जाता है.

एस आर 10

चने की इस किस्म को राजस्थान में अधिक उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे सिंचित और असिंचित दोनों तरह की भूमि में उगाये जा सकते हैं. इस किस्म के पौधे असिंचित जगहों पर रोपाई के के दौरान लगभग 140 दिन के आसपास पककर तैयार होते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 20 से 25 क्विंटल के बीच पाया जाता है. इस किस्म के पौधों पर कई तरह के रोग देखने को नही मिलते.

पूसा 1003

डॉलर चने की इस किस्म को उत्तर प्रदेश में अधिक उगाया जाता है. जिसके पौधे रोपाई के लगभग 130 से 140 दिन बाद खुदाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 20 से 22 क्विंटल तक पाया जाता है. इसके दाने मध्यम बड़े आकार के पाए जाते है. इसके पौधे उकठा रोग के प्रति सहिष्णु होते हैं.

शुभ्रा

चने की इस किस्म के पौधे सामान्य ऊंचाई के पाए जाते हैं. जिनको सिंचित और असिंचित दोनों तरह की भूमि में आसानी से उगाया जा सकता है. इस किस्म के पौधे सूखे के प्रति सहनशील पाए जाते हैं. इसके पौधे रोपाई के लगभग 120 से 125 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 20 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म के पौधों पर उकठा रोग का प्रभाव देखने को नही मिलता.

इनके अलावा और भी काफी किस्में हैं जिन्हें अलग अलग जगहों पर वातावरण के हिसाब से अधिक उत्पादन लेने के लिए उगाया जाता है. जिनमें एच.के. 94-134, सी एस जे के 54, उज्जवल,अंजलि, गौरी, पंत काबुली 1, आसार, राज विजय काबुली 101, आनंद और जे.जी.के 3 जैसी बहुत साड़ी किस्में मौजूद हैं.

 

काबुली चने  के बीजों की रोपाई मशीनों के माध्यम से की जाती है. मशीन के माध्यम से रोपाई के दौरान इसके बीजों को पंक्तियों में उगाया जाता है. पंक्तियों में बीजो की रोपाई के दौरान प्रत्येक पंक्तियों के बीच एक फिट की दूरी होनी चाहिए. और पंक्तियों में उगाये गए बीजों के बीच 20 से 25 सेंटीमीटर की दूरी होनी चाहिए. काबुली चने के बीजों की रोपाई के दौरान उन्हें 5 से 7 सेंटीमीटर की गहराई में उगाना चाहिए. ताकि बीजों का अंकुरण अच्छे से हो पाए.

काबुली चने की खेती रबी की फसलों के साथ की जाती है. लेकिन सिंचित और असिंचित जगहों के आधार पर इनकी रोपाई अलग अलग समय पर की जाती हैं.  सिंचित जगहों पर रोपाई के दौरान इसके बीजों की रोपाई अक्टूबर माह के आखिर तक कर देनी चाहिए. और असिंचित जगहों पर इसकी रोपाई बारिश के आधार पर की जाती है.

काबुली चने की खेती के लिए मिट्टी का भुरभुरा होना जरूरी होता है. इसके लिए शुरुआत के खेत की गहरी जुताई कर उसे कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ दें. जिससे मिट्टी में मौजूद हानिकारक कीट नष्ट हो जाते हैं. खेत को खाली छोड़ने के बाद उसमें लगभग 10 से 12 गाडी पुरानी गोबर की खाद को डालकर अच्छे से मिट्टी में मिला दें. खाद को मिट्टी में मिलाने के लिए खेत की कल्टीवेटर के माध्यम से दो तिरछी जुताई कर दें.

खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत में रोटावेटर चलाकर मिट्टी में मौजूद ढेलों को नष्ट कर खेत में पाटा लगाकर खेत को समतल बना दे. उसके बाद बारिश होने के तुरंत बाद इसके दानों की रोपाई कर दें. लेकिन जिन किसान भाई के पास सिंचाई उचित व्यवस्था हो वो खेत का पलेव कर और फिर से खेत की मिट्टी को भुरभुरा कर बीज की रोपाई टाइम से कर सकता है.

सिंचाई प्रबंधन

डॉलर चने के पौधों को देशी चने से ज्यादा पानी की जरूरत होती है. इसलिए इसके पौधों की रोपाई के लगभग 50 दिन के आसपास पौधों की पहली सिंचाई कर देनी चाहिए. उसके बाद इसके पौधों की दूसरी सिंचाई फलियों में दाने बनने के दौरान करनी चाहिए. और इस दौरान अगर बारिश हो जाए तो पौधों की दूसरी सिंचाई नही करनी चाहिए. चने के पौधों में फूल बनने के दौरान कभी भी सिंचाई नही करनी चाहिए. इससे फसल खराब हो जाती है. इसके पौधों की दो सिंचाई काफी होती है. लेकिन पानी की उचित व्यवस्था हो तो दानो के पकने के दौरान एक हल्की सिंचाई करने से दाने अच्छे से पकते हैं. और पैदावार भी अधिक प्राप्त होती हैं.

बीज की मात्रा

डॉलर चने की प्रति एकड़ रोपाई के लिए लगभग 35 से 40 किलो बीज की जरूरत होती हैं।

बीजोपचार

डॉलर चने की प्रति एकड़ रोपाई के लिए लगभग 35 से 40 किलो बीज की जरूरत होती हैं।  इसके बीजों की खेत में रोपाई से पहले उन्हें कार्बेन्डाजिम, मैंकोजेब या राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर लेना चाहिए. इससे दानो के अंकुरण के वक्त लगने वाले रोगों का प्रभाव काफी कम देखने को मिलता है.

चने के पौधों को उर्वरक की ज्यादा जरूरत नही होती. इसके पौधे खुद भूमि में नाइट्रोजन की आपूर्ति करते हैं. जिससे भूमि की उर्वरक क्षमता बढती है. इसकी खेती के लिए शुरुआत में खेत की जुताई के वक्त दी जाने वाली 10 से 12 गाडी गोबर की खाद काफी होती हैं. और जो किसान भाई रासायनिक खाद का इस्तेमाल करना चाहता है वो इसकी इसके बीजों की रोपाई से पहले 50 किलो डी.ए.पी. की मात्रा को खेत की आखिरी जुताई के वक्त खेत में छिडक दें.

काबुली चना की उपज विभिन्न खरपतवारों से प्रभावित होती है | अत: खेत से खरपतवार निकाल देने या उनके नियंत्रण से भरपूर उपज प्राप्त होती है | खरपतवार नियंत्रण से खेत में डाले गये खाद एवं उर्वरकों का उपयोग चना के पौधों द्वारा होने से उपज में वृद्धि होती है तथा पौधों में समुचित मात्रा में वायु–संचार होता है | बुवाई के 30–35 दिन बाद पहली निराई व गुडाई कर खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए | दूसरी निराई या गुडाई 60–65 दिन बाद करनी चाहिए | पेंडीमेथालिन 1.00 – 1.25 किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर को 700 – 800 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के तुरंत बाद (72 घंटे के अंदर) छिडकाव करने से खरपतवार नष्ट हो जाते हैं | खेत में उपरी सतह में नमी होने पर खरपतवार नाशी रसायन अधिक प्रभावशाली होता है | छिडकाव धुप होने पर करना ज्यादा अच्छा होता है |

पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम

काबुली चने के पौधों में कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं. जिनकी रोकथाम समय रहते ना की जाये तो पौधों की पैदावार और उनके विकास पर प्रभाव देखने को मिलता हैं.

उकठा रोग

इसके पौधों में उकठा रोग फफूंद की वजह से फैलता है. पौधों पर इस रोग का प्रभाव बीज रोपाई के लगभग तीन से चार सप्ताह बाद ही दिखाई देने लगता है. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों का रंग हल्का पीला दिखाई देने लगता है. रोग बढ़ने पर पत्तियां सुखकर गीरने लगती है. जिस कारण पौधे का विकास रुक जाता है. जिसके कुछ दिन बाद सम्पूर्ण पौधा नष्ट हो जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए शुरुआत में बीजों को कार्बेन्डाजिम या बाविस्टीन की उचित मात्रा से उपचारित कर लेना चाहिए. इसके अलावा खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर पौधों पर कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.

हरदा रोग

चने के पौधों में यह रोग यूरोमाईसीज साइसरीज नामक फफूंद की वजह से फैलता है. पौधों पर इस रोग का प्रभाव मौसम में अधिक नमी के बने रहने और पाला के पड़ने के दौरान दिखाई देता है. इस रोग के लगने से पौधे के तने और शाखाओं पर सफेद रंग के फफोले बन जाते हैं. रोग बढ़ने पर इन फफोलों का रंग काला दिखाई देने लगता है. और कुछ दिन बाद पौधे पूरी तरह सूखकर नष्ट हो जाते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर रोग दिखाई देने के तुरंत बाद मैंकोजेब की उचित मात्रा को पानी में मिलाकर 10 दिन के अंतराल में दो बार छिडक दें.

रस्ट

चने के पौधों में इस रोग का प्रभाव फसल के पकने के दौरान दिखाई देता है. जो सूक्ष्म जीवों के संक्रमण के कारण फैलता हैं. इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधे की पत्तियों और शाखाओं पर भूरे काले रंग के चित्ते दिखाई देने लगते हैं. रोग के बढ़ने से इन धब्बों का आकार बढ़ जाता है. जिससे पौधों की पैदावार प्रभावित होती है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मैंकोजेब, गंधक या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड उचित मात्रा का छिडकाव 10 दिन के अंतराल में 2 से तीन बार करना चाहिए.

कटुआ कीट

चने के पौधों में कटुआ कीट रोग का प्रभाव पौधों के विकास के दौरान देखने को मिलता है. इस रोग की सुंडी पौधे की जड़ के पास से काटकर पौधों को नष्ट कर देती हैं. जिससे पौधा तुरंत खराब हो जाता है. इसकी सुंडी पौधों को रात के मौसम में काटती है. और दिन के मौसम में मिट्टी में छुप जाती है. रोग के बढ़ने पर सम्पूर्ण फसल खराब हो जाती है. इस रोग की रोकथाम के लिए क्लोरोपाइरीफास की ढाई लीटर मात्रा को पानी में मिलाकर खेत की जुताई के वक्त खेत में छिडक देना चाहिए. इसके अलावा फोरेट का इस्तेमाल भी करना अच्छा होता है.

फली छेदक

डॉलर चने के पौधों मे फली छेदक रोग कीट वजह से फैलता है. इस रोग के कीट की सुंडी का रंग हल्का हरा दिखाई देता है. जो पौधों पर फली बनने के दौरान दिखाई देती है. इसकी सुंडी पौधे की फलियों में छेद कर अंदर चली जाती हैं. और फलियों में पाए जाने वाले दानो को खाकर उन्हें खराब कर देती है. रोग बढ़ने से इसका असर ज्यादातर पौधों पर देखने को मिलता हैं. जिससे पौधों से प्राप्त होने वाली पैदावार को सबसे ज्यादा नुक्सान पहुँचाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर स्पाइनोसेड या इन्डोक्साकार्ब की उचित मात्रा का 2 बार छिडकाव करना चाहिए. इसके अलावा रोग दिखाई देने पर नीम के तेल का छिडकाव पौधों पर दस दिन के अंतराल में दो बार करना चाहिए। 

सरसों की खेती का वैज्ञानिक तरीका-
– 5 से 25 अक्टूबर तक खेत में सरसों की बुआई करें.
– एक एकड़ खेत में 1 किलोग्राम बीज का इस्तेमाल करें.
– बुआई के समय खेत में 100 किग्रा सिंगल सुपरफॉस्फेट, 35 किग्रा यूरिया और 25 किग्रा म्यूरेट ऑफ पोटाश (MoP) का इस्तेमाल करें.
– बुआई के बाद 1-3 दिन के भीतर खरपतवार की रोकथाम के लिए पैंडीमेथालीन (30 EC) केमिकल की एक लीटर मात्रा को 400 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें.
– बुआई के 20-25 दिन बाद खेत की निराई-गुड़ाई करें. 
– खेत में पौधों के बीच लाइन से लाइन की दूरी 45 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर रखें.
– फसल की पहली सिंचाई 35-40 दिन के बाद करें. जरूरत होने पर दूसरी सिंचाई फली में दाना बनते समय करें. फसल पर फूल आने के समय सिंचाई नहीं करनी चाहिए.
– पौधों की छंटाई और पहली सिंचाई के बाद 35 किलोग्राम यूरिया प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें.
– फसल पर माहूं या चेंपा कीट का हमला होने पर नीम तेल की 5 एमएल मात्रा एक लीटर पानी या फिर इमीडाक्लोप्रिड (17.8 एमएल) की 100 एमएल मात्रा को 200 लीटर पानी में मिलाकर शाम के समय फसल पर छिड़काव करें. जरूरत होने पर दूसरा छिड़काव 10-12 दिन बाद फिर करें.
– फसल में फलियां बनते समय सरसों के पौधों की 20-25 सेमी नीचे की पुरानी पत्तियों की तुड़ाई कर दें.
– बुआई के 65-70 दिन बाद कार्बेन्डाजिम (12 फीसदी) और मैन्कोजेब (63 फीसदी) की 250 ग्राम मात्रा को 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें.
– फूल और फली बनने के समय थायोयूरिया की 250 ग्राम मात्रा को 200 लीटर पानी में मिलाकर खेत में छिड़काव करें. इससे फसल को पाले से भी बचाव होता है.
– सरसों की अच्छी पैदावार के लिए 75 फीसदी फलियां पीली हो जाएं तब ही फसल की कटाई करें.

सरसों की अच्छी पैदावार के लिए कृषि वैज्ञानिक इन किस्मों के इस्तेमाल की सलाह देते हैं- 

प्रमुख किस्म       पकने का समय       औसत उपज (कु/हेक्टेयर)
पूसा अग्रणी              110                        17.5
पूसा करिश्मा            148                        22.0
पूसा महक                118                       17.5

पीली सरसों
NRCYS-05-02      94-181                  12- 17
YSH 401                110                      12-16
पीताम्बरी                  115                      14-17

फसल की कटाई और मढ़ाई

इसके पौधे बीज रोपाई के लगभग 100 से 120 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. पकने के बाद इसके पौधों का रंग हल्का पीला दिखाई देने लगता है. और फलियों में पाया जाने वाला दाना कठोर हो जाता है. जिसमें नमी की मात्रा पाई जाती है. इस दौरान इसके पौधों की जड़ के पास से कटाई कर लेनी चाहिए.पौधों की कटाई करने के बाद उन्हें खेत में एकत्रित कर कुछ दिन तक तेज धूप में सूखा लेना चाहिए.

जब फसल अच्छी तरह सूख जाए तब उसे थ्रेसर की सहायता से निकलवा लेना चाहिए. जबकि छोटे किसान भाई इसकी फसल को सूखने के बाद लकड़ी से पीटकर भी निकालते हैं. उसके बाद प्राप्त होने वाली उपज को बोरो में भरकर बाजार में बेचने के लिए भेज देना चाहिए. लेकिन अगर बाजार में फसल का दाम उचित नाम मिले तो किसान भाई इसे कुछ समय के लिए भंडारित कर अच्छे दाम मिलने पर बेच सकता है.

पैदावार

काबुली चने के दाने सामान्य चने से मोटे पाए जाते हैं. जिसकी विभिन्न किस्मों का प्रति एकड़  औसतन उत्पादन 20 क्विंटल से ज्यादा पाया जाता है. और इसका बाजार भाव 6 हजार प्रति क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस हिसाब से किसान भाई एक बार में एक हेक्टेयर से सालाना सवा लाख के आसपास कमाई कर सकता है.

एक एकड़ में काबुली चने की पूरी खेती के लिए कुल 15000 से 25,000/- रुपए तक का खर्चा आता है।

एक एकड़ में काबुली चने की पूरी खेती के लिए कुल 15000 से 25,000/- रुपए तक का खर्चा आता है।

इससे 20 क्विंटल काबुली चने प्राप्त होती है जो 6 हजार रुपए प्रति क्विंटल बिकती है। इससे 1 लाख रुपए की कमाई हो जाती है 

आय व्यय / एकड़ :

एक नजर मे
कुल बीजपौधे की संख्याउपजखर्चबिक्री दर/प्रति कुन्टलआयशुद्ध लाभ
35 से 40 किलो बीज 22 से 24  कुंतल₹ 25 ,000/-₹ 6000/- ₹ 125,000₹ 1 लाख 

ध्यान दें : यह बाजार पर घट एवं बढ़ भी सकता है ।

काबुली चने की खेती के लिए बीज आप फ्यूचरफ़ार्मिंग के साइट से आनलाइन ऑर्डर कर मँगवा सकते है। 

भंडारण अलग – अलग  बोरों में भरे गए काबुली चना सुरक्षित ढंग से भंडारणों में रखा जाता है | भंडारण के लिए चना के दानों में लगभग 10 प्रतिशत नमी होनी चाहिए | यह विशेष ध्यान देने योग्य है की जिस भंडारण या स्टोर में फसल को भण्डारित किया जाना है वह नमी रहित होना चाहिए, साथ ही साथ घुन रहित भी होना चाहिए | घुन से काबुली चना को बहुत हानि होती है यह भी ध्यान देना आवश्यक है की भंडारण गृह में वायु का प्रवेश नहीं होना चाहिए | सुरक्षित भंडारण के लिए मिट्टी के कुठलों या स्टील के कुठलों का प्रयोग करना लाभदायक होता है |

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