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आरोग्य/स्वास्थ के लिए फलों में पपीते का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है इसलिए पिछले कुछ वर्षों में पपीता की खेती की तरफ किसानों का रुझान बढ़ रहा है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह हमारे देश का पांचवा लोकप्रिय फल है। भारत में अधिकांश हिस्सों में इसकी खेती की जाती है। पपीते में भरपूर मात्रा में विटामिन A और C के अच्छे स्त्रोत है। विटामिन के साथ पपीता में पपेन नामक एंजाइम पाया जाता है जो शरीर की अतिरिक्त चर्बी को हटाने में सहायक होता है। जिन लोगों को अपच की समस्या है उनके लिए तो पपीता रामबाण इलाज है। इसके सेवन से अपच की समस्या खत्म हो जाती है। ये फल पित्त का शमन तथा भोजन के प्रति रुचि उत्पन्न करता है। इसलिए जब हम बीमार हो जाते हैं तो डाक्टर भी हमें पपीता खाने की सलाह देता है। इसमें पर्याप्त मात्रा में पानी होता है जो त्वचा को नम रखने में सहायक होता है। इसके अलावा पपीते का इस्तेमाल घरेलू सौंदर्य प्रसाधन में भी किया जाता है। कई लोग पपीते के गूदे को चहरे पर लगाते हैं जिससे चहरे पर निखार आता है और त्वचा में नमी बनी रहती है। पपीते का सौंदर्य जगत तथा उद्योग जगत में व्यापक प्रयोग किया जाता है। यदि इसकी उन्नत तरीके की खेती की जाए तो कम लागत पर अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है। यही नहीं इसकी खेती के साथ ही इसकी अंत:वर्तीय फसलों को भी बोया जा सकता है। इनमें दलहनी फसलों जैसे मटर, मैथी, चना, फ्रेंचबीन व सोयाबीन आदि की फसल इसके साथ ली जा सकती है लेकिन ध्यान रखें इसके साथ मिर्च, टमाटर, बैंगन, भिंडी आदि फसलों को पपीते पौधों के बीच अंत:वर्तीय फसलों के रूप में नहीं उगाना चाहिए। इससे पपीते के पौधे को हानि होती है।
पपीते का उत्पादन बारहों महीने होता है, लेकिन यह फ़रवरी-मार्च से मई से अक्टूबर के मध्य विशेष रूप से पैदा होता है, क्योंकि इसकी सफल खेती के लिए 10 डिग्री से. से 40 डिग्री से. तापमान उपयुक्त है। स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होने के साथ ही पपीता सबसे कम दिनों में तैयार होने वाले फलों में से एक है जो कच्चे और पके दोनों ही रूपों में उपयोगी है। इसका आर्थिक महत्व ताजे फलों के अतिरिक्त पपेन के कारण भी है, जिसका प्रयोग बहुत से औद्योगिक कामों (जैसे कि खाद्य प्रसंस्करण, कपड़ा उद्योग आदि) में होता है।
पपीता की खेती के लिए 6.5-7.5 पी. एच मान वाली हल्की दोमट या दोमट मिट्टी जिसमें जलनिकास अच्छा हो सर्वाधिक उपयुक्त होती है।
पपीते की खेती के लिए जलवायु व भूमि
पपीते की अच्छी खेती गर्म नमी युक्त जलवायु में की जा सकती है। इसे अधिकतम 38 डिग्री सेल्सियस 44 डिग्री सेल्सियस तक तापमान होने पर उगाया जा सकता है, न्यूनतम 5 डिग्री सेल्सियस से कम नही होना चाहिए लू तथा पाले से पपीते को बहुत नुकसान होता है। पपीता बहुत ही जल्दी बढऩे वाला पेड़ है। साधारण ज़मीन, थोड़ी गर्मी और अच्छी धूप मिले तो यह पेड़ अच्छा पनपता है, पर इसे अधिक पानी या ज़मीन में क्षार की ज़्यादा मात्रा रास नहीं आता है।
पपीते की उन्नत किस्में
पूसा डोलसियरा
यह अधिक ऊपज देने वाली पपीते की गाइनोडाइसियश प्रजाति है। जिसमें मादा तथा नर-मादा दो प्रकार के फूल एक ही पौधे पर आते हैं पके फल का स्वाद मीठा तथा आकर्षक सुगंध लिये होता है। इस किस्म से करीब 40-45 किग्रा प्रति पेड़ उपज प्राप्त की जा सकती है।
पूसा मेजेस्टी
यह भी एक गाइनोडाइसियश प्रजाति है। इसकी उत्पादकता अधिक है, तथा भंडारण क्षमता भी अधिक होती है। यह पूरे भारत वर्ष में उगाई जा सकती है। इसकी उपज की बात करें तो इसकी उपज 35-40 किग्रा प्रति पेड़ प्राप्त की जा सकती है।
इसके अलावा इसकी अन्य किस्मों में पूसा जॉयंट जिससे प्रति पेड़ 30-35 किग्रा उपज प्रति पेड़, पूजा ड्वार्फ़ किस्म जिससे 40-45 किग्रा उपज प्रति पेड़ तथा पूसा नन्हा किस्म जिससे 25-30 किलोग्राम उपज प्रति पेड़ प्राप्त की जा सकती है।
पपीते की संकर किस्म- रेड लेडी 786
इस किस्म की खासियत यह है कि नर व मादा फूल ही पौधे पर होते हैं, लिहाजा हर पौधे से फल मिलने की गारंटी होती है। इस नई किस्म की एक ख़ासियत यह है कि इसमें साधारण पपीते में लगने वाली पपायरिक स्काट वायरस नहीं लगता है। यह किस्म सिर्फ 9 महीने में तैयार हो जाती है। इस किस्म के फलों की भंडारण क्षमता भी ज्यादा होती है।
पपीते की संकर किस्म- रेड लेडी 786
पपीते की एक नई किस्म पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना द्वारा विकसित की गई है, जिसे रेड लेडी 786 नाम दिया है। यह एक संकर किस्म है। इस किस्म की खासियत यह है कि नर व मादा फूल ही पौधे पर होते हैं, लिहाजा हर पौधे से फल मिलने की गारंटी होती है। पपीते की अन्य किस्मों में नर व मादा फूल अलग-अलग पौधे पर लगते हैं, ऐसे में फूल निकलने तक यह पहचानना कठिन होता है कि कौन सा पौधे नर है और कौन सा मादा। इस नई किस्म की एक ख़ासियत यह है कि इसमें साधारण पपीते में लगने वाली पपायरिक स्काट वायरस नहीं लगता है। यह किस्म सिर्फ 9 महीने में तैयार हो जाती है। इस किस्म के फलों की भंडारण क्षमता भी ज्यादा होती है। पपीते में एंटी आक्सीडेंट पोषक तत्व कैरोटिन,पोटैशियम,मैग्नीशियम, रेशा और विटामिन ए, बी, सी सहित कई अन्य गुणकारी तत्व भी पाए जाते हैं, जो सेहत के लिए बेहद फायदेमंद होते हैं। इसे हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, झारखंड और राजस्थान में भी उगाया जा रहा है।
पपीते की खेती का उचित समय
वैसे तो इसकी खेती साल के बारहों महीने की जा सकती है लेकिन इसकी खेती का उचित समय फरवरी और मार्च एवं अक्टूबर के मध्य का माना जाता है, क्योंकि इस महीनों में उगाए गए पपीते की बढ़वार काफी अच्छी होती है।
खेत की तैयारी
पौधे लगाने से पहले खेत की अच्छी तरह तैयारी करके खेत को समतल कर लेना चाहिए ताकि पानी न भर सकें। फिर पपीता के लिए 50*50*50 सेमी आकार के गड्ढे 1.5*1.5 मीटर के फासले पर खोद लेने चाहिए और प्रत्येक गड्ढे में 30 ग्राम बी.एच.सी. 10 प्रतिशत डस्ट मिलकर उपचारित कर लेना चाहिए। ऊंची बढऩे वाली किस्मों के लिए 1.8*1.8 मीटर फासला रखना चाहिए। पौधे 20-25 सेमी के फासले पर लगाने चाहिए।
इसकी खेती के लिए पहले क्यारियां तैयार करनी पड़ती है. जहां बीज के माध्यम से पौधा तैयार किया जाता है. पौधा तैयार करने के बाद इसे खेतों में रोपने का काम का काम किया जाता है. रोहित लाइन से लाइन 1 फीट और पौधे से पौधे की दूरी 6 फीट रखते हैं.
सिंचाई व अन्य क्रियाएं
पपीता के पौधों की अच्छी वृद्धि तथा अच्छी गुणवत्तायुक्त फलोत्पादन हेतु मिट्टी में सही नमी स्तर बनाए रखना बहुत जरूरी होता है। नमी की अत्याधिक कमी का पौधों की वृद्धि फलों की उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। सामान्यत: शरद ऋतु में 10-15 दिन के अंतर से तथा ग्रीष्म ऋतु में 5-7 दिनों के अंतराल पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करें। सिंचाई की आधुनिक विधि ड्रिप तकनीक अपना सकते हैं। इसके अलावा समय-समय पर इसके पौधों के आसपास उगने वाली खरपतवार को भी हटाते रहे। वैसे तो इसमें यह समस्या कम ही रहती है पर बारिश के दिनों में खरपतवार का उग जाती है इसे हटा देना चाहिए। इसके अलावा शीत ऋतु में पाले से बचाने के लिए खेत में धुआँ करना चाहिए तथा खेत में नमी बनाए रखने के लिए आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए।
एक एकड़ में तकरीबन 100 ग्राम बीज का उपयोग करते हैं और करीव 1200 से 1400 पौधे की जरूरत है ।
बीज उपचार: बीज जनित रोगों से बचाने के लिए थायिरम या कैप्टान 2.5 ग्राम/किलोग्राम बीज के दर से उपचार करना लाभदायक है।
पपीते की वैज्ञानिक तकनीक से नर्सरी (पौधशाला) तैयार कैसे करें ?
पपीते की बागवानी से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करना चाहते है| तो पपीता की स्वस्थ और वैज्ञानिक तकनीक से पौध तैयार करना आवश्यक है, जिससे गुणवत्तायुक्त उत्पादन प्राप्त हो सके|
पपीते में नर्सरी तैयार करते समय स्वस्थ प्रमाणित बीज 3 मीटर लम्बी, 1 मीटर चौड़ी और 3 से 5 सेंटीमीटर ऊँची क्यारी, गमले या पॉलीथीन बैग में उगाये जा सकते हैं| बीज के अच्छे जमाव के लिए नर्सरी बेड को फॉर्मलीन या पालीथीन से ढक कर उष्मा उपचार से उपचारित करना चाहिए| 4 से 5 दिनों बाद सीड बेड से पालीथीन हटा देना चाहिए या क्यारी को खुला छोड़ देना चाहिए, जिससे अतिरिक्त फॉर्मलीन उड़ जाए|
चूँकि पपीता को बीज से प्रवर्धित किया जाता है, इसलिए पूर्ण विकसित फलों से इसके बीज निकालना चाहिए तथा बीज में लगे चिकने पदार्थ को राख से रगड़कर अच्छी तरह हटा देना चाहिए| बीज को 1 सेंटीमीटर गहरे तथा एक दूसरे से 10 सेंटीमीटर की दूरी पर बोना चाहिए और उन्हें अच्छी कम्पोस्ट या पत्तियों या पॉलीथीन से ढक देना चाहिए| नर्सरी में पानी का हल्का छिड़काव हजारे द्वारा सुबह के समय करना चाहिए|
खराब मौसम से बचाने के लिए पुआल या पॉलीथीन से ढकना आवश्यक होता है| कीड़ों से नर्सरी को बचाने के लिए 0.2 प्रतिशत किसी कीटनाशक (फॉलीडाल धूल 5 प्रतिशत) का बुरकाव करना चाहिए| नर्सरी में गलका रोग से बचाने के लिए बीज का उपचार थीरम फफूंदीनाशक दवा का प्रयोग 0.1 प्रतिशत की दर से करना चाहिए| बीज का जमाव बोने के 15 से 20 दिनों बाद हो जाता है|
यदि बीज को 1.5 मिलीलीटर मोल सांद्रता वाली जिब्रेलिक एसिड घोल से उपचारित करें तो जमाव अच्छा होता है| 35 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान पर बीज का जमाव सबसे अच्छा होता है| बीज की शुद्धता तभी मिल सकती है, जब हम बीज या पौधे को किसी प्रमाणित नर्सरी से लेते हैं| एक हेक्टेयर भूमि में पौधे लगाने के लिए 500 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है|
जब हम बीज को पॉलीथीन बैग या गमलों में बोते हैं, तो 5 से 6 बीज प्रति बैग या गमले में बोना चाहिए 10 से 20 दिनों में बीज अंकुरित हो जाते हैं| पपीते के बीज की अंकुरण क्षमता शीघ्र समाप्त होती है, यदि इसका उचित भण्डारण नहीं किया जाता है| सामान्यतयाः बीज को फल से निकालने के 3 से 4 माह बाद अंकुरण क्षमता कम होने लगती है|
किन्तु यदि बीज को बंद डिब्बे, जिसमें हवा न जाय एवं ठंडे स्थान पर रखें तो अंकुरण क्षमता 8 से 10 माह तक बनी रहती है| पपीते के इन नये पौधों को डैम्पिंग ऑफ बीमारी से बचाने के लिए 2 ग्राम (कॉपर आक्सीक्लोराइड) 1 लीटर पानी में घोल बना कर 25 मिलीलीटर प्रति बैग प्रयोग करना चाहिए| क्यारी में उगे हुए पौधों में जब 2 से 3 पत्तियाँ आ जाएँ तो क्यारी से पॉलीथीन बैग में स्थानान्तरण करना चाहिए|
यदि पौधे पॉलीथीन बैग में हैं और एक से अधिक पौध हैं तो उन्हें भी अलग बैग में स्थानान्तरित कर देते हैं| जिससे एक ही स्थान पर सघनता न होने पायें| साधारणतयाः पौधे 30 से 45 दिनों बाद 15 से 20 सेंटीमीटर ऊँचाई के हो जाते हैं, तभी खेत में पौधे को लगाना चाहिए| पौध रोपण सदैव सायंकाल में किया जाना चाहिए|
पपीते के रोपण
आपने जो खेत में 2 *2 मीटर की दूरी पर 50*50*50 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोदें थे उन्हें 15 दिनों के लिए खुले छोड़ दें ताकि ताकि गड्ढों को अच्छी तरह धूप लग जाए और हानिकारक कीड़े – मकोड़े व रोगाणु आदि नष्ट हो जाएं। इसके बाद पौधे का रोपण करना चाहिए। पौधे लगाने के बाद गड्ढे को मिट्टी और गोबर की खाद 50 ग्राम एल्ड्रिन मिलाकर इस प्रकार भरना चाहिए कि वह जमीन से 10-15 सेंटीमीटर ऊंचा रहे। गड्ढे की भराई के बाद सिंचाई कर देनी चाहिए, जिससे मिट्टी अच्छी तरह बैठ जाए। पौधे लगाते समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि गड्ढे को ढक देना चाहिए जिससे पानी तने से न लगे।
खाद व उर्वरक
- पपीता जल्दी फल देना शुरू कर देता है। इसलिए इसे अधिक उपजाऊ भूमि की जरुरत है। अत: अच्छी फ़सल लेने के लिए 200 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फ़ॉस्फऱस एवं 500 ग्राम पोटाश प्रति पौधे की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष प्रति पौधे 20-25 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद, एक किलोग्राम बोनमील और एक किलोग्राम नीम की खली की जरुरत पड़ती है। खाद की यह मात्र तीन बार बराबर मात्रा में मार्च-अप्रैल, जुलाई-अगस्त और अक्टूबर महीनों में देनी चाहिए।
- पपीता जल्दी बढऩे व फल देने वाला पौधा है, जिसके कारण भूमि से काफी मात्रा में पोषक तत्व निकल जाते हैं। लिहाजा अच्छी उपज हासिल करने के लिए 250 ग्राम नाइट्रोजन, 150 ग्राम फास्फोरस और 250 ग्राम पोटाश प्रति पौधे हर साल देना चाहिए। नाइट्रोजन की मात्रा को 6 भागों में बांट कर पौधा रोपण के 2 महीने बाद से हर दूसरे महीने डालना चाहिए।
- फास्फोरस व पोटाश की आधी-आधी मात्रा 2 बार में देनी चाहिए। उर्वरकों को तने से 30 सेंटीमीटर की दूरी पर पौधे के चारों ओर बिखेर कर मिट्टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। फास्फोरस व पोटाश की आधी मात्रा फरवरी-मार्च और आधी जुलाई-अगस्त में देनी चाहिए। उर्वरक देने के बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए।
खरपतवार: निराई गुडाई करते वक्त पौधों के बीच में उगने वाले खरपतवारों को निकालतें रहना चाहिए, तनों के चारों तरफ मिट्टी की छोटी मेंड़ चढ़ा देनी चाहिए।
पपीते के कीट व नियंत्रण के उपाय
लाल मक्खी: इस कीडे के आक्रमण से फल खुरदरे व काले रंग के हो जाते है. पत्तियों पीली पड कर गिर जाती है. इस कीडे की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास या मेटासिस्टाक्स के 0.03 फीसदी का छिड़काव करना चाहिए।
माहू: यह कीडा पत्तियां का रस चूसता है. इस की रोकथाम के लिए शुरूआत अवस्था में ही 0.03 फीसदी मोनोक्रोटोफास या फास्फेमिडान का छिड़काव करना चाहिए.
आर्द्रगलन: इस बीमारी से पौधशाला में छोटे पौधों का तना जमीन के पास से सड़ जाता है और वे मुरझा कर गिर जाते है. इस बीमारी की रोकथाम के लिए बोर्डो मिश्रण 3 फीसदी या जिनेब 0.3 फीसदी का छिड़काव करें. साथ ही मिट्टी को फार्मेल्डिहाइड के 2.5 फीसदी घोल से उपचारित करें व बीजों को थाइरम दवा की 2 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बोएं.
वाइरस बीमारियां: सभी प्रकार की वाइरस बीमारियां पत्ती का रस चूसने वाले कीड़ों द्वारा फैलाई जाती है। पपीते में प्रमुख रूप से 3 वायरस बीमारियां मोजैक, डिस्टारसन रिंग स्पाट वायरस और लीफ कर्ल वाइरस लगती है। मोजैक बीमारी से पत्तियों का हरापन कम हो जाता है व पत्तियां छोटी होकर सिकुड़ जाती है।
रोगग्रस्त पत्तियों में फैले हुए दाग पड़ जाते है। कुछ दिनों बाद पौधा मर जाता हैं। डिस्टारसन रिंग स्पाट वाइरस से पपीते का सब से ज्यादा नुकसान होता है। प्रभावित पौधें की पत्तियां कटी फटी सी दिखाई देती हैं और पौधों की बढ़वार रूक जाती हैं। लीफ कर्ल वाइरस से पत्तियां पूरी तरह से मुड जाती हैं और न तो पौधे बढ़ पाते हैं और न ही फल लगते है। रोकथाम के लिए बीमारीग्रस्त पौधों को खत्म कर दें।
कीड़ों की रोकथाम के लिए मेटासिस्टाक्स या मेलाथियान के 0.05 फीसदी घोल का 16 दिन के अंतर पर छिड़काव करना चाहिए। ऐसे इलाकों में, जहां वाइरस बीमारियों का डर रहता है, वहां पौधशाला या नर्सरी सिंतबर अक्तूबर के महीनों में लगाएं। नर्सरी में पौधों पर दो चार पत्तियां आते ही उन पर नियमित कीटनाशक दवाओं का छिड़काव करते रहें। बीमार पौधों को निकाल कर गड्ढें में दबा दें या जला दें। बागों के नजदीक पुराने विषाणुग्रसित पौधों को नष्ट कर दें, क्योंकि इन पौधों में वाइरस कई सालों तक बने रहते है और नए बागों में रोग फैलने का स्त्रोत बन जाता हैं। बागों के नजदीक ऐसी सब्जियां न लगाएं, जिनमें तेला, चेंपा या सफेद मक्खी का प्रकोप होता हो, क्योंकि ये कीट ही मुख्य रूप से वाइरस एक पौधें से दूसरे पौधें तक ले जाते हैं।
तना या पद विगलन रोग यानी स्टेम या फुट राट: यह एक मिट्टी जनित बीमारी है, जिससे फफूंद मिट्टी में पैदा होते हैं। इस बीमारी के असर से मिट्टी की सतह से तनों में सड़न शुरू हो जाती है व छाल पीली पड जाती हैं और मुरझा कर गिर जाती हैं। तना सड़ जाता है और आखिर में पौधा गिर जाता हैं। इस बीमारी का प्रकोप बारिश के मौसम में या नमी ज्यादा होने पर ज्यादा होता हैं। खासकर ऐसे खेतों में, जिन में जल निकास का इंतजाम ठीक नहीं होता। इस बीमारी की रोकथाम के लिए जमीन से 60 सेंटीमीटर की ऊंचाई तक तनों पर बोर्डोपेस्ट की पुताई करना चाहिए। बीमार पौधों का फौरन उखाड़कर दबा या जला देना चाहिए। बारिश या सिंचाई का पानी तने के सीधे संपर्क में नहीं आना चाहिए। इस के लिए पौधों के तनों के चारों ओर मिट्टी चढ़ा देना चाहिए। कॉपर आक्सीक्लोराइड 2 ग्राम एक लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए। इस से बीमारी दूसरे पौधों पर नहीं फैलती।
किन बातों का रखें ध्यान
पपीते के पौधों को ठंड में पाला लगने की संभावना काफी रहती है. ऐसे में पौधों पाला से बचाना बहुत जरूरी है. कई किसान पौधों के पास ठंड के समय में धुआं सुलगा देते हैं जिससे पौधें को गर्माहत मिलती रहे.
1. पपीता का पौधा खेतों ज्यादा पानी जमा होना सहन नहीं कर सकता है. ऐसी स्थिति में खेतों में जलनिकासी की व्यवस्था काफी बेहतर होनी चाहिए.
2. वैसे तो ठंड के मौसम में पपीते की खेती को सिंचाई की ज्यादा जरूरत नहीं होती, लेकिन गर्मी के मौसम में इसकी विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार सिंचाई करना बेहद आवश्यक है.
पौधो की पाले से सुरक्षा:
नवम्बर महीनें में इन पौधों को सूखे घासफूस या खरपतवार से ढक दें. हलकी सिंचाई की व्यवस्था कर पाले से पौधों को बचाया जा सकता है।
फलों की छंटाई:
उत्तम गुणों वाले बड़े फल हासिल करने के लिए अवांछित और छोटे-छोटे फलों को निकाल देना चाहिए. स्वस्थ पेड़ों वाले पपीते की एक हेक्टेयर फसल से 250-400 क्विंटल तक पैदावार मिल जाती है। स्वस्थ पेड़ों पर 25 से 80 फल तक लगते है. फल बनने के तकरीबन एक महीने बाद तनों पर कुछ फलों को बीच-बीच से निकाल कर प्रति गांठ औसतन दो फल छोडना जरूरी होता है. ऐसा करने से बचे हुए फलों के आकार में अच्छा विकास हो पाता है।
*बिहार में जहाँ पानी जमाव की समस्या है तथा वर्षा के दिनों में विषाणु रोग अधिक तेजी से फैलते हैं वहाँ अगस्त के अंत में या सितम्बर के शुरू में नर्सरी में बीज बोना चाहिए। पपीता की खेती हेतु ऐसी जगह का चुनाव करना चाहिए जहाँ बरसात में पानी नही ठहरता हो।
पपीते की तुड़ाई कब करें
पपीत के पूर्ण रूप से परिपक्व फलों को जबकि फल के शीर्ष भाग में पीलापन शुरू हो जाए तब डंठल सहित इसकी तुड़ाई करनी चाहिए। तुड़ाई के बाद स्वस्थ, एक से आकार के फलों को अलग कर लेना चाहिए तथा सड़े-गले फलों को अलग हटा देना चाहिए।
पपीते के फलों से पपेन निकालने की विधि व उत्पादन
साधारणत: पपेन को पपीते के कच्चे फलों से निकला जाता है। पपेन के लिए 90-100 दिन विकसित कच्चे फलों का चुनाव करना चाहिए। कच्चे चुने हुए फलों से सुबह 3 मि.मी. गहराई के 3-4 चीरे गोलाई आकार में लगाने चाहिए। इसके पूर्व पौधों पर फलों से निकलने वाले दूध को एकत्रित करने के लिए प्लास्टिक के बर्तन को तैयार रखना चाहिए। फलों पर प्रथम बार के ( चीरा लगाने के बाद ) 3-4 दिनों बाद पुन: चीरा लगाकर पपेन एकत्रित करना चाहिए। पपेन (दूध) प्राप्त होने के बाद उसमे 0.5 प्रतिशत पोटेशियम मेन्टाबाई सल्फेट परिरक्षक के रूप में मिलाना चाहिए ताकि पपेन को 3-4 दिन तक सुरक्षित रखा जा सके। पपेन को अच्छी तरह सुखाकर पपेन को प्रसंस्करण केंद्र को भेजा जा सकता है।
इस प्रकार पपीते की पपेन के लिए उपयुक्त किस्मों सी ओ -2 एवं सी ओ – 5 के पौधों से 100 – 150 ग्राम पपेन प्रति पौधा प्रति वर्ष प्राप्त हो जाता है। इस पपेन को अच्छी तरह सूखाकर पैंकिंग किया जाता है। इस पपेन को अच्छी तरह सुखाकर प्राप्त पपेन को प्रसंस्करण के लिए संयंत्र महाराष्ट्र के जलगाँव तथा येवला ( नासिक ) को भेज जा सकता है। इससे आपको कमाई अच्छी कमाई होगी। इसके अलावा इन फलों से पपेन निकालने के बाद उनसे अन्य प्रसंस्कृत उत्पाद जैसे टूटी फ्रूटी, मुरब्बा बनाया जा सकता है तथा चीरा लगे पके फलों का जैम जेली मुरब्बा रास या गुदा जिसे प्यूरी कहते है बनाकर डिब्बाबंद किया जा सकता है। बता दें कि भारत पपीता प्यूरी का एक बड़ा निर्यातक है।
पपीते का एक स्वस्थ पेड़ आपको एक सीजन में करीब 40 किलो तक फल देता है। यदि आप दो पड़ों के बीच करीब 6 फिट का गैप रख सकते हैं और इस हिसाब से आप एकएकड़ में करीब 1000/1200 पेड़ तैयार कर सकते हैं।
प्रति एकड़ – 1000 पेड़ X 40Kg = 40000Kg/40 टन
उत्पादन लागत रू. 90,000/- प्रति एकड़
मद | व्यय (रू. प्रति एकड़) |
---|---|
खेत की तैयारी | 3000/- |
बीज एवं नर्सरी | 11000/- |
खाद एवं उर्वरक | 6000/- |
सिंचाई | 8000/- |
फसल सुरक्षा | 10000/- |
मजदूरी | 25000/- |
अन्य व्यय | 10000/- |
कुल | 90000/- |
पपीते की प्राप्त उपज / पपीते की खेती से कमाई
कुल उत्पादन ( क्विंटल / एकड़)= 400
विक्रय से प्राप्त राशि = 400,000 रुपए
आय-व्यय:
उत्पादन लागत | कुल आय | विक्रय दर | शुद्ध लाभ |
---|---|---|---|
रू. 90,000/- प्रति एकड़ | रू. 4,00,000/- प्रति एकड़ | रू. 10,000/- प्रति कुन्टल | रू. 3,10,000/- प्रति एकड़ |
ध्यान दें : यह बाजार पर घट एवं बढ़ भी सकता है ।
पपीता की खेती से मुनाफा / शुद्ध लाभ= 1,94,600
अतिरिक्त लाभ
पपीते के दो पौधों के बीच पर्याप्त जगह होती है। इसलिए इनके बीच छोटे आकर के पौधे वाली सब्जियां किसान को अतिरिक्त आय देती हैं। इनके पेड़ों के बीच प्याज, पालक, मेथी, मटर या बीन की खेती की जा सकती है। केवल इन फसलों के माध्यम से भी किसान को अच्छा लाभ हो जाता है। इसे पपीते की खेती के साथ बोनस के रूप में देखा जा सकता है। पपीते की फसल के सावधानी यह रखनी चाहिए कि एक बार फसल लेने के बाद उसी खेत में तीन साल तक पपीते की खेती करने से बचना चाहिए क्योंकि एक ही जगह पर लगातार खेती करने से फलों का आकार छोटा होने लगता है।
कहां उपलब्ध है बाजार
पपीता का बाजार वैसे तो स्थानीय तौर पर हर जगह उपलब्ध है. लोगों में इस फल की मांग काफी ज्यादा रहती है तो हाथों-हाथ बिक जाते हैं.इसके अलावा रोहति बताते हैं कि पपीते का उपयोग दवाओं से लेकर कॉस्मेटिक्स तक में होता है, ऐसे इन प्रोडक्ट का निर्माण करने वाली कंपनियां भी किसानों से संपर्क कर इस फल को खरीदने को तैयार रहती हैं.